बुधवार, 17 अप्रैल 2013

Sanjay Pal: Researcher and Link Writer



हर अगला कदम पीछे होता है,और पीछेवाला आगे आता है ..... पिछले कदम की यह अनवरत यात्रा है, स्वाभाविक दृढ़ प्रयास ! हिमालय हो या कैलाश पर्वत ..... ऊँचाई विनम्र होती है,पर नीचे नहीं उतरती - उसे पाने के लिए उसमें रास्ते बना उसपर चढ़ना होता है ... यदि कल को कोई नन्हा सूरज आ जाये आकाश में तो निःसंदेह उसे अपनी पहचान के लिए सदियों से उगते सूरज से सामंजस्य बिठाना होगा,उसके ताप को सहना होगा अपने भीतर ऊर्जा जगाने के लिए . 
शब्दों की यात्रा में,मुखरता के आज में कई लोग मिलते हैं - पर उद्देश्यहीन . उद्देश्य के मार्ग में उम्र क्या और यात्रा की अवधि क्या ! युवा उम्र की गति आशीष लेकर जब चलती है तो मंजिलें उन तक स्वयं बढ़ने को आतुर होती हैं ...... आज ऐसे ही एक युवा से मेरी बातों की मुलाकात हुई FB के मेसेज बॉक्स में ...
रोमन लिपि में बातचीत के क्षणिक अंश -
Rashmi Mam.. Sadar namaskar ... aap se judna chahta hoon plz.. accept my Req..
Kabhi mauka mile to meri wall pe jana .. thoda bahut likhne ki koshis bhi kar raha hoon ... 

===========मैंने जवाब दिया - 
main gayi thi abhi aur padhkar hi request confirm kiya  :) yahi aashirwaad hai aur meri pratikriya

ओह! भूमिका प्रवाह में है और मैंने उभरते स्थापित युवा का नाम बताया ही नहीं .... ये हैं संजय पाल 
और इनके पंखों की उड़ान का दृष्टिगत आकाश है -

My Litraryzone ! Sanjay Pal


13 फरवरी 2013 से इस आकाश की रचना देखकर कौन कह सकता है कि 13 unlucky नम्बर है ......... मेरी प्रतिक्रया तो यही है कि यह उड़ान बड़ी लम्बी होगी . 

आइये इनकी कुछ रचनाओं से भी मिलवाऊँ -

जिंदगी की तमाम
राहों को छोड़कर
हम मिले थे
एक अजनबी मोड़ पर
चाहत जगी ऐसी
बिछडना गंवारा ना हुआ
हम एक दूजे के हुए
पर वक़्त हमारा ना हुआ

हम बढ़ते रहे
एक उमर तक
चाहतों को साथ लेके
एक दूजे के हाथों में
एक दूजे का साथ लेके
हमें मुंह मोड़ना गंवारा ना था
वक़्त ने दोराहे पर छोडा
जाने कैसे यूं ही चलते-चलते

समझ से परे था
समय से भी परे
वक़्त की ठोकर को समझना
एक दूजे को
समझते हुए भी समझ पाना
दर्द हुआ था मुझे
हुआ होगा तुम्हें भी
वक़्त ने मारी थी ठोकर
छुपछुप के रोना गवांरा ना था
हमने हर उस घाव को सहा
जो मेरा था - तुम्हारा था
पर हमारा ना था

कुछ मजबूरियां थी मेरी
रही होगीतुम्हारी भी
पास आना था आ गए
दूर जाने की बेवशी थी
जिसे चाहकर भी
हम मिटा ना सके
प्यार था, मोहब्बत थी
तुम्हें खोने की टीस भी
बस एक दुसरे को पाकर भी पा ना सके ...

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शब्द नहीं थे 
तो हम कितने अकेले थे 
ग़मों का गम नहीं था 
खुशियों का खुमार नहीं था 
दुःख था, दर्द था 
अपनत्व था, प्यार था 
बस इजहार नहीं था 
सनिध्व जुड़ा शब्दों से 
प्यार की नदी बही 
कुछ आंसू उमड़े आंखों से 
दिल के दर्द को भी 
एक दिशा मिली 
यह शब्द ही हैं जो 
जीवन के अकेलेपन से लड़ते हैं 
यह शब्द ही हैं जो 
जीवन के खालीपन को भरते हैं 
अब तो एक रिश्ता सा बन गया है 
इन अनबोलते शब्दों से 
मैं चुप रहता हूं 
और मेरे शब्द बोलते हैं ...

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खुद में खुद नहीं 
महज खुद में खुद के 
होने का अहसास था 
जो वक़्त के साथ भरम बनता गया 
कितना अपरिहार्य लगता है ना ?
खुद में खुद के होने 
और नहीं होने का भरम ?
सचमुच कितना कठिन है ?
अपने आपमें 
अपने आपको खोजना ?
स्वय में स्वय को ढूंढना ?

मैंने अक्सर 
खुद ही खुद को छला 
हमेशा दूसरों को कोसा 
कीचड़ उछाला 
और जब मुझे 
मेरी जरुरत थी 
मैं मुझमें था ही नहीं 
फिर मैं आज कैसे कहूँ 
कि मैं – मैं हूं 
और तुम – तुम हो ?
चलो एक बार फिर से खंगालें

स्वय को मनाएं 
मैं – मैं हूं 
तुम – तुम हो 
खुद को विश्वास दिलाएं 
और हम बन जाएं 
प्रेम में भरम अच्छा नहीं 
हम का हम नहीं होना चल जाएगा 
मैं का मैं और 
तुम का तुम होने में दाग धब्बा नहीं .... 

                   इत्तेफ़ाक की बात कहूँ या होनी ........ पर कोई शक्स किसी से यूँ ही नहीं मिलता . 

शनिवार, 26 जनवरी 2013

अचानक एक सागर मिला -सौरभ रॉय



मैं शब्द हूँ, स्याही हूँ, कलम हूँ, पन्ना हूँ ...... या भावनाओं की यायावर 
अपनी पहचान से अलग मैं बस इतना जानती हूँ - कि 
बंजारों की तरह मैं चलती हूँ 
जहाँ मिलते हैं अद्भुत एहसास 
कुछ दिन वहीँ खेमा लगा लेती हूँ ............ ताकि उस जमीन की मिटटी आपके लिए उठा सकूँ . 
                 मिटटी की कोई उम्र नहीं होती, वह नम है तो उसकी उर्वरक क्षमता आपको विस्मित कर देगी . ऐसे ही विस्मित भाव जगे जब एक मेल मुझे मिला -

नमस्कार,

मेरा नाम सौरभ राय 'भगीरथ' है और मैं हिंदी में कवितायेँ लिखता हूँ । मेरी उम्र 24 वर्ष वर्ष है एवं मेरी कविताओं के तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमे से यायावर गतः शनिवार (15 दिसम्बर, 2012) को बैंगलोर में रिलीज़ हुआ । मेरी कवितायेँ हिंदी की कई किताबों में प्रकाशित हो चुकी हैं । इसके अलावा हंस मेरी कविताओं को अपने अगले संकलन में प्रकाशित कर रहा है । इसके अलावा हिन्दू, डीएनए, वीक सहित कई अंग्रेजी के पत्र पत्रिकाओं में मेरे लेखन के बारे में छप चुका है ।

अपनी कुछ कवितायेँ आपके उत्कृष्ट पत्रिका 'वटवृक्ष' में छापने हेतु भेज रहा हूँ । आशा है आपको पसंद आएँगी । इनके प्रकाशित होने पर इनका एक संकलित लिंक मुझे भेज दीजियेगा ताकि मैं अपने वेबसाइट http://souravroy.com से पाठकों को आपके साईट में भेज सकूं ।

एक एक शब्द विश्वास से लबरेज .... मैं पढ़ती गई और लगा 24 वर्ष का अनुभव गौरवान्वित कर रहा है इस देश को - भगीरथ का प्रयास और गंगा, सौरभ रॉय 'भगीरथ' के शब्द शिव जटा से कम नहीं लगे . भावनाओं के आवेग को शब्दों का खूबसूरत कैनवस देकर इस युवा कवि ने कलम की जय का शंखनाद किया है . 

सौरभ रॉय की अपनी वेबसाइट है - जहाँ पहुंचकर आपको उस गुफा में हीरे जवाहरातों से कीमती एहसासों के उजाले मिलेंगे .मेरी यात्रा,मेरा पडाव कविता,कहानियाँ होती हैं तो आइये इस गुफा के कुछ कोने तक मैं ले चलूँ -

एक और दिन

प्रदुषण से लड़ते लड़ते
एक और पत्ती
सूख गयी है
पक्ष विपक्ष ने
एक दुसरे को गालियाँ देने का
मुद्दा ढूंढ लिया है
डस्टबिन कूड़े से
थोड़ा और भर गया है
किसान का बैल
भूखे पेट
हल जोतने से अकड़ गया है |

पत्रकारों ने जनता को
डरना शुरू कर दिया है
मज़दूर कारखानों में पिस रहें हैं
उनकी सांसें निकल रही चिमनियों से
किसानों के घुटनों के घाव
फिर से रिस रहें हैं
हीरो हिरोइन का रोमांस पढ़
युवा रोमांचित है
लड़की का जन्म अनवांछित है |

धर्मगत जातिगत नरसंहार
डेंगू मलेरिया कालाज़ार
हत्या ख़ुदख़ुशी बलात्कार
हाजत में पुलिस की मार
ज़हरीले शराब की डकार से
थोड़े और लोग मर रहें हैं
कुछ मुष्टंडे
लो वेस्ट निक्कर पहन
रक्तदान करने से दर रहे हैं |

एक और सूरज डूब रहा है
अपने घोटालों की फेहरिस्त देख
मंत्री स्वयं ही ऊब रहा है
अमीर क्रिकटरों के नखरे
और नंग धडंग लड़कियों का नाच देख
पब्लिक ताली पीट रहा है
मुबारक हो ! मुबारक हो !
भारतवर्ष में एक और दिन
सकुशल बीत रहा है ||
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दो बहनें

‘विरक्ति’ और ‘अशांति’
दो बहनें हैं |
दो चंचल बहनें
जो पता नहीं कितनों से ‘ब्याही’ हैं
कितनो से ‘बंधी’ हैं |
स्वांगमय-गरिमामय रूप उनका |
मैं एक से ब्याहा हूँ
दूसरी से बंधा हुआ !
दोनों को छोड़ दूं
तो क्या सुखी हो जाऊंगा
या और सुनसान ?
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करवटों के जोकर

भारत का संविधान जानते हो
कई लोगों को पहचानते हो
समझते हो देश की तकलीफें
आते हो
आकर चले जाते हो |
इस नितम्बाकार अजायबघर में क्यों बैठे हो ?
बाहर आकर देखो
दुनिया सदियों से दु-निया है |
प्रसंगों में जी रहे हो
दीमक की तरह
मेरी माँ के शरीर पर
अपेंडिक्स की तरह क्यों लटके हो ?
जब तुम्हारी ज़रुरत
आदमी को कम
बंदरों को ज़्यादा है |

आँखों में बुखार की जलन नहीं
नस में रक्त स्राव की टूटन नहीं
जर्जर आत्मबल लिए
तुम्हारी देह
खड़ी है कपड़े उतारकर, और
पृथिवी के संग बस
घूम रही है
और तुम अपने होने भर के
एहसास में उत्सव मना रहे हो
करते रहो लीचड़ बहाने
अस्पताल में क्रांति के
क्या माने ?
बनाकर गूखोर सूअरों का गिरोह
घूमते रहो सड़कों पर
एक आसान शिकार की तरह |
बैठो नुक्कडों पर
बातें करो
पैसे-चाय-क्रान्ति की
घुट्टी पियो सीमेंट घोलकर
तुम्हारी बारिश भी
तुम्हारे फसल को देख कर बरसती है
तुम्हारी माँ तुम्हारी आत्मा को तरसती है
जब तुम ट्रैफिक जाम में फंसे
हार्न पर माथा पीटते हो
एक और अभिमन्यु
एक और व्यूह में पिट जाता है
चलो आज बता ही दूं
तुम्हारा विद्वतापूर्ण संवाद
एक विशिष्ट बकवास में सिमट जाता है |

पीछे हटो
ओ असाध्य रोग के ग्रास !
ओ सुलभ मृत्यु के दास !
तुम्हारे झुके कन्धों से
आज मेरी माँ शर्म से झुकी है
करते रहो प्रयोग अपनी भाषा सुधारने की
और अपनी यातना को कला का नाम देकर
बने रहो करवटों के जोकर
कभी काल कुछ करते भी हो
तो उसे क्या बुलाओगे ?
मनुष्यता ?
या परिणति ?
अंत से पहले ही
ख़त्म हो गए?
जानने से पहले ही
जान लिया?

स्तन मदिरा प्रार्थना ज़हर
कहो तुम्हारा मुंह कहाँ खुलेगा?
अपने कटे हाथों को
माचिस की डिब्बी में डाल
चलते रहो घुटनों के बल
घुटनों के बिना
शिकस्त आदमी अधमरे अस्तित्व
हर चीज़ ऊंचे पर है
उल्लू चिमगादड़ से भी ऊंचे
और उछालना तुम्हारी औकात से बहार

तुम्हारे वस्त्रों के पार दिखते हैं
तुम्हारे अंग
जिनसे आती है
जले मांस की गंध
बार बार टकराते हो खुदसे
जानते हो ऐसा ही है
तुम्हारे पास मुस्कुराने की
एक ठोस वजह नहीं है !
सर उठाओ
अब तो जी कर दिखाओ
वरना फिंक जाओगे
अकेलेपन की तरह
तुम्हारा खून कितना ही लाल हो
कैनवास पर खून नहीं बना सकते
काले पड़ जाओगे
उसी तरह आते रहेंगे
उन्हीं उन्हीं नामों के
वही वही दिन
कुकुरमुत्तों की तरह तुम
बिस्तर पर सड़ जाओगे |
तलवार से परछाईयाँ नहीं काट सकते
मैं क्यों चीख रहा हूँ
तुम्हारे वास्ते ?
क्यों बांस बन
तुम्हारी चिता उलट रहा हूँ ?
तुम्हारे वास्ते |
पर जान लो ये बात
जो करता हूँ
ईमान से
प्यार करुँ या सैर
इन पंक्तियों में भी मैंने
थाम रक्खा था हाथ तुम्हारा
लिख रहे थे पैर !!
===============================
विक्रम बेताल

मेरा आत्मा रोज़
ज़बरजस्ती मर कर
लटक जाती है
पेड़ पर
वहां प्रलाप करती है
चीखती है
क्रांति क्रांति !
और लिपटी रहती है
अपनी शाखा से |

मेरे तले अँधेरा है
घनघोर !

मेरा शरीर
मुझे ढूंढता हुआ
रोज़ आता है
मुझे ढोता है कंधे पर
और ऊल फिजूल
प्रश्नों में फंस
फोड़ डालता है
अपना ही सिर |

मेरे सिरे रोशनी है
प्रचंड !

सोमवार, 5 नवंबर 2012

योजना के यज्ञ में शक्ति जिसे समिधा बनाती है, उसके क़दमों के निशाँ गहरे होते हैं ... आकाश मिश्रा


आकाश के उस पार क्या होगा ? निःसंदेह एक आकाश और - जो सितारों की सौगात लिए चाँद और सूरज के संग हमारे लिए छत बनकर हमारे लिए ही प्रतीक्षित होगा . उस आकाश के आगे भी कवि बच्चन ने कहा होगा -
इस पार प्रिये मधु है तुम हो, 
उस पार न जाने क्या होगा !... उस पार का रहस्य,संभावनाएं हमेशा बनी रहती है और अनुसन्धान को विचरता मन उस दिशा में बढ़ता है,चिंतन करता है ... 
जीवन, जीवन को जीने के लिए आजीविका,उसके लिए शिक्षा-कर्मठता .... उस रास्ते से अपनी विशेष रूचि के लक्ष्य के आगे बढ़ना विशेष शक्ति की विशेष योजना है . इस योजना के यज्ञ में शक्ति जिसे समिधा बनाती है, उसके क़दमों के निशाँ गहरे होते हैं . 
लिखना और उतनी ही उत्कंठा से पढना - ऐसा अगर ना हो तो ना लिखे के अर्थ सर्वव्यापी होते हैं, ना उनका कोई मूल्य अपने ही भीतर होता है . अपनी इस विचारधारा के रास्ते पर मैंने गौर से देखा एक शक्स को .... आकाश मिश्रा का  -  आकाश के उस पार   ब्लॉग है . अभी बहुत समय नहीं हुआ लिखते हुए, पर जो भी लिखा है उन्होंने, वह लीक से हटकर अपनी पहचान देती है, पहचान आकाश के विस्तार का, उसमें भरे चाँद सितारों का, उल्का,नक्षत्र,ग्रहों की विशेष योजनाओं का ... और यह तभी मिलता है जब विनम्रता साथ चलती और रहती है . 
आकाश  नहीं कहता की मैं आकाश हूँ, क्षितिज का आधार,सितारों का घर,न जाने कितने धरतीवासियों की छत ..... कभी नहीं कहता आकाश ऐसा कुछ भी, ना ही वह दिखावे की भाषा बोलता है - आकाश आकाश है और इस गरिमा को वह खोता नहीं . छोटे छोटे सितारे भी उसकी आगोश में एक अस्तित्व रखते हैं .... सच भी है, जहाँ आकाश है,वहीँ तो जमीन है !
कल यानी 30 अक्तूबर 2012 को आकाश मिश्रा ने मेरे एक ब्लॉग की यात्रा की .... सम्पूर्णता उनकी टिप्पणी की समग्रता में थी, एक एक शब्द धैर्य,रूचि,समझ के परिचायक थे . टिप्पणियों को देखते हुए मैंने माना कि शिव धनुष सी क्षमता है इस युवा में, मात्र हिंदी को लेकर नहीं ... विचारों के ओजस्वी धरोहर की तरह जीवन के समुचित वेग के संग !!!
अभी तो अगस्त से लिखना शुरू ही किया है , कुल 22 पोस्ट हैं आज की तारीख तक और हर पोस्ट के माध्यम से कुछ विशेष सन्देश दिया है आकाश ने ....

मैं अगर मिली होती तो मेरी कलम चलती ही जाती,पर एक दिन में जो सच मैंने पाया,वह पूरी तरह आपके सामने है . आगे की बागडोर तो आकाश के हाथों में है ... स्वभाव से शर्मीला,बड़ों के समक्ष नत आकाश कुछ नहीं कहना चाहता, पर कुछ नहीं के क्रम में शब्द,अर्थ मिल ही जाते हैं -

आकाश ने कहा - 

यकीन मानिए कोई विशेष घटना नहीं हुई | बचपन से बहुत दब्बू और शर्मीले किस्म का था , तो कुछ खास घटित नहीं हुआ | पिता जी से बहुत डर लगता था तो पढ़ाई के अलावा कोई चाह या विशेष रूचि भी नहीं रही , इसी वजह से कैरम तक ढंग से नहीं खेल पाता हूँ , और लिखने के लिए तो मैंने आपको पहले ही बताया कि मुझे हिंदी विषय कभी पसंद नहीं रहा और न घर में कोई साहित्यिक माहौल था जो लिखता , शायद जब पहली बार वक्त ने मुझे कुछ सिखाने के लिए पटखनी दी , तभी से लिखना शुरू किया (शायद , पक्का याद नहीं )
और आपके ब्लॉग में इतनी बड़ी बड़ी हस्तियाँ हैं , उनके बीच में मेरा आना शोभा नहीं देगा , मेरी और आपकी दोनों की आलोचना होगी | 
मेरा आपसे फिर से विनम्र निवेदन है कि कृपया मेरे ऊपर इतना भार न डालें , मुझे एक अच्छे पाठक होने का ही आशीर्वाद दें |........ 
...............

फिर भी मैं आकाश लेकर आई हूँ - आकाश के ही शब्दों में 

१ जुलाई १९९२ को कानपुर के एक निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार में उसका जन्म हुआ | उसकी माँ श्री मती विजय श्री मिश्रा एक कुशल गृहणी थीं और कला में विशेष रूचि रखती थीं और उसके पिता श्री सुधीर कुमार मिश्र कोषागार , औरैया(कानपुर और इटावा के बीच एक छोटा सा जिला) में कार्यरत थे | उसका एक छोटा भाई भी था-सागर | घर का सबसे बड़ा लड़का होने के कारण सभी उसे ‘अंकुर’ बुलाते थे | उसके छोटे से सफर में तीन बातें हैं , जिन्होंने उस पर खास असर डाला –
१.) बचपन से ही उसे हिंदी विषय में कोई खास रूचि नहीं थी | वो पीछे वाली सीट पर सो कर हिंदी की कक्षा का भरपूर उपयोग करता था | लेकिन फिर भी उसे कभी किसी कविता की व्याख्या करने में कोई खास परेशानी नहीं होती थी , जिसका कारण सिर्फ उसकी माँ थीं | उन्हें दोहे-चौपाई वगैरह काफी आते थे , जिन्हें वो यूँ ही घर का काम करते हुए गुनगुनाया करतीं थीं | बस इससे ज्यादा उसके घर में कोई साहित्यिक माहौल नहीं था | लेकिन उसकी माँ ने उसमें बीज डालने का सबसे जरूरी काम कर दिया था |
२.) १०वीं में पहली बार उसने जगजीत सिंह जी को सुना , ‘हे राम’ में | फिर उनकी कुछ और गजलें भी सुनीं और कुछ पुरानी फिल्मों के गीत सुने | तब पहली बार उसका रुझान गजल/कविता कीओर हुआ लेकिन ये शौक सिर्फ सुनने तक ही सीमित था |
३.) पढ़ाई-लिखाई में औसत से कुछ अच्छा था तो सब दोस्तों की देखा देखी इंजीनियरिंग में कूद गया(छोटी जगहों में ज्यादा विकल्प भी कहाँ होते हैं) | कोचिंग के लिए कानपुर आया तब कहाँ सोचा था कि जिंदगी बदलने वाली है | प्रवेश परीक्षाओं का नतीजा उसके लिए एक सौगात ले कर आया , उसने पहली बार असफलता का मुंह देखा | एक दिन में ही सब कुछ बदल गया | उसका सारा घर इस बात से टूट चुका था , वो भी | ढाई महीना बहुत बुरागुजरा | फिर एक दिन उसके पिता जी ने उसे दोबारा तैयारी के लिए कोटा भेजा(हालाँकि वो इसके लिए तैयार नहीं था , लेकिन उसके पिता जी को उस पर उस से ज्यादा भरोसा था) | कोटा में एकदम अकेले बिताए उन दस महीनों ने उसे वो बनाया जो वो आज है | वहाँ कुछ अधूरी कवितायेँ भी लिखीं , लेकिन सब की सब दुखियारी , फ्रस्ट्रेट करने वाली , पकाऊ | उसने कभी उनका संग्रह नहीं किया | अंततः कोटा का नतीजा सुखद रहा | जिंदगी वापस पटरी पर लौट आयी लेकिन उस एक हार और उस एक साल ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया |
मैं ‘आकाश’(आसमान) हूँ , मैंने इस धरती के हर प्राणी को बहुत करीब से देखा है | मैं आपको कहानी सुना रहा था धरती पर रहने वाले एक और आकाश की जिसको ये नाम उसकी बुआ ने दिया और वो इस नाम को ही अपना शक्ति-स्रोत मानता है |आज पीछे पलटकर देखता होगा तो सोचता होगा कि अगर जीवन में वो असफलता न मिली होती तो उसके पास कितना कुछ नहीं होता और अगर उस असफलता से लड़ने की ताकत उसके माता-पिता ने उसे न दी होती तो शायद वो भी टूटकर भीड़ में शामिल हो गया होता |
उसके २० साल के सफर को जितना भी खींच-तान कर कहूँ , बात सिर्फ इतनी है –
आँखों में एक नमी सी बची है , बस ,
मेरे आंसुओं को इस कदर पिया है तुमने |
जिसे लोग गलती से मेरा मानते हैं , वो 
नाम तक चेहरे को मेरे , दिया है तुमने |
मुझपे दुनिया का स्याह रंग चढ़ता ही नहीं ,
मेरी तस्वीर को कुछ ऐसा रंग दिया है तुमने |
मैं आईना तो हूँ , मगर बिखरा नहीं अब तक ,
मेरे माथे को दुआ बन के छू लिया है तुमने |
- मेरी माते और पापा(यही कहता हूँ मैं उन दोनों को) के लिए



मेरी कलम आशीर्वाद ही है ... उस पार का रहस्य भी तुम जान लो, शिखर को छुओ .... पर एक बात सकारात्मक रूप में जानो की वक़्त की पटखनी ईश्वर की विशेष कृपा होती है, पटखनी यानी जीत के लिए 
विस्तृत आकाशीय धरातल . 

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

परिवर्तन की इक मंद हवा - रश्मि तारिका



यायावर मन रुकता कहाँ है !!! हर दिन नई प्रत्याशा में सृष्टि मंथन करने निकल पड़ता है . आँखें क्षितिज से आगे ढूंढती हैं उन निशानों को , जो मन की गहराईयों से उभरते हैं . झुरमुट से एक किरण ने बाहें पकड़ लीं और मैं आदतन किरणों के पृष्ठ पलटने लगी . सम्पूर्णता के क्रमिक प्रकाश के बीच - एक किरण सी रश्मि तारिका मुझे मिलीं http://www.catchmypost.com/Blogs/rashmi.html पर . 
सहज सोच की सहज अभिव्यक्ति,दृढ़ता के ओज से परिपूर्ण . बगावत,विरोध,परिवर्तन की मांग में भी एक सौम्यता ... सौम्यता ना हो तो विचारणीय नहीं रहते कथन ! 

आप इनको इनके ब्लॉग पर मेरे शब्दों के अनुरूप पा सकते हैं, उससे पहले उनके शब्दों में उन्हें जानिए - 


 अपने बारे में क्या कहूँ? मुझे जब रश्मि दी ने अपने दृष्टिकोण से खुद का परिचय लिखने को कहा तो समझ नहीं पाई! मुझे तो इतना मालूम था कि.... 

दिल  में  कुछ  हसरतों  को समेटे  जिए जा रहे  थे 
पलकों  में  कुछ  खवाब  सजाये  जिए  जा  रहे  थे
अपनी  ख्वाइशों का  भी  कुछ  अता पता  नहीं  था  
हम  खुद  में  सिमटे  ज़िन्दगी  जिए   जा  रहे  थे.
ख़ामोशी  से  बेरंग  हुई  उमंगों  को  दबाये  जा  रहे थे 
चाहतों  के  टूटने  पर अश्कों  को  खुद   पिये  जा  रहे  थे,
न  मालूम  था  ज़िन्दगी  को कैसे  देखना  अब  मयस्सर  होगा
हम  खुद  से  ही  पूछते  खुद  ही  जवाब  दिए  जा  रहे  थे ...
   
         एक सीधी साधी गृहणी , जो अपनी छोटी सी बगिया को अपने फ़र्ज़,कर्तव्यों से सींचती हुई खुश  रहती है और कभी खाने की तारीफ या परिवार वालों से दो शब्द प्यार के  भी सुनती है तो अपने आत्मसम्मान के लिए अपना इजाफा समझती है ! लेकिन अब ....
  ''हाँ ,आजकल आसमान में उड़ने लगी हूँ !जैसे किसी ने मेरे पंखो को उड़ान दे दी हो !बताऊँ क्यों? दरअसल ,अपने ख्यालों को जो ताबीर दी थी ,कुछ करने की चाह जो दिल में बरसों से ज़िम्मेवारियों और फर्जो की किसी गहरी खाई में दबी पड़ी थी अब उन्हें निकलने का वक़्त मिला तो कुछ अपनों और  दोस्तों की प्रेरणा रुपी रस्सी से निकाला तो जल रुपी भावों की मटकी भरी हुई पाई !उस मटकी से छलकते जल की शीतलता का एहसास ही जैसे प्यासे को उस जल की उपयोगिता जतलाता है वैसे ही मेरे भावों को भी शब्दों की उपयोगिता का आभास हुआ !तब से ये भावरूपी मटकी अब भरती जा रही है !अब शायद ये कभी खाली न हो !''  ये एहसास मुझे रश्मि दीदी ने करवाया कि अपनी लेखनी में से चंद शब्दों का लेख द्वारा  इज़हार उनकी पुस्तक के लिए करू !यह सुनकर तो मेरी ख़ुशी का पारावार न था !मानो बहुत कुछ पा लिया हो मैंने !
 कभी सोचती हूँ ,  अपने माता पिता और भाई बहनों में एक भोली छवि वाली लड़की ,गर्ल्स कॉलेज ,(हिसार हरियाणा ) में भी अपने आप में सिमटी रहने वाली ,अपने शर्मीले स्वाभाव के साथ ही  बी.ऐ पूरी होते ही  केवल इन्ही गुणों के साथ ससुराल '' सहारनपुर'' आ गई और खो गई अपने परिवार में !उस वक़्त देवरों ,ननदों में ही अपना दोस्त मिला  और प्यारे पति के साथ ज़िन्दगी बिताना ही मात्र एक पूर्णता का एहसास था और इसे बेटी और एक बेटे के जनम ने चार चाँद लगा दिया !मायके में पत्र पत्रिकाओं , कहानियां उपन्यास पढने का शौक था तो ससुराल में एक अखबार की भी कमी खलती !किसी को शौक नहीं था इन सब का ! मेरे शौक ज़िम्मेवारियों में दब गए और मुझे पता भी न चला !पर जैसे समय ने ही करवट ली और हम सहारनपुर (उ.प) से सूरत(गुजरात) में आ गए !उस वक़्त कम्पुटर का 'स्विफ्ट ज्योति ' का बेसिक कोर्स महिलाओं के लिए शुरू हुआ था जो मेरी भी  करने की चाह थी परन्तु  किन्ही कारन वश मुझे घर में मना कर दिया गया !अपना खाली समय उस वक़्त केवल  बच्चो की स्कूल मैगज़ीन में बच्चो के लिए कुछ  न कुछ लिख कर या उनके चार्ट्स बना कर अपने लिखने की हसरत पूरी कर लेती !धीरे धीरे ये एहसास हुआ कि मन बहुत कुछ लिखने को मचलता है !सोचती थी ,कि आखिर अपने भावों को शब्दों में पिरोने की ललक क्यों ? कॉलेज में हिंदी को (ऐच्छिक और वैकल्पिक) विषय चुनना और उस में उच्चतम नंबर लाना ही लिखने का कारण नहीं हो सकता !यद्यपि ये कारक सहयोगी अवश्य हो सकता है लेखनी में ! फिर ये लिखने की अनुभूति हुई कैसे ?... मन स्वत: ही इन 'भावों की जननी अपनी माँ '' की तरफ जाने लगा जिन्होंने अपनी लिखने की कला को ईश्वर भक्ति को समर्पित अपने स्वरचित और स्व लिखित भजनों द्वारा किया और मेरे मानस पटल पर भी अंकित कर दिया! उनका  ईश्वर प्रेम प्रतिदिन एक नया भजन बन कर दृश्यमान और गुंजायमान होता !कुछ ऐसे ...
                              '' धूल बनके तेरे चरणों से लिपटना अच्छा लगता है
                                 साँसों कि लय से तझे सिमरना  अच्छा लगता है !''
  घर के कार्यो में व्यस्त होने के बावजूद माँ ने अब तक खुद के ही २०० भजन बना लिए और एक बार १०८ भजनों की माला हमारे गुरुओं के चरणों में समर्पितकी  !उनकी इस सात्विक सोच का हमारे जीवन पर भी प्रभाव रहा !
                                 ''मेरी आँखें तलाशती रहती हैं हर इंसान में हर रूप तेरा
                                  सारी दुनिया 'रब' लगती है  यह हाल मेरा
                                  तेरा सिमरन कर लेती हैं मेरी साँसे चलते चलते
                                  मुझे प्रेम हो गया है तुझसे तेरे चर्चे करते करते ...!''
 उनका मानना था कि.मुश्किलों का घबराकर नहीं ,उनका समाधान ढूँढ़ कर निवारण करो और फिर भी कोई रास्ता न सूझे तो बजाये चिंता करने के वो वक़्त प्रभु सिमरन में लगा दो और उस मालिक पर छोड़ दो ''
 सच पूछिये तो इन दो वाक्यों का मुझ पर हमेशा प्रभाव रहा है !फलस्वरूप मैंने परिस्थितियों से हार न मानते हुए अपने व्यस्त पलों से कुछ पल अपने लिए निकाल कर अपनी लेखनी को देने प्रारम्भ किये !पहली बार अपने स्कूल के विद्यार्थियों और अध्यापिकाओं को समर्पित करते हुए एक कविता लिखी जब शादी के काफी वर्षो बाद अपने विद्यार्थी काल की सखी को अपने ही शहर में पाया तो उस ख़ुशी को भी शब्द दे दिए ,https://www.facebook.com/notes/rashmi-tarika/campus-school-ki-yaadein/207428335935860जो बेहद पसंद की  गई !सबने उत्साहित किया तो लिखती चली गई !अपने मन की  ख्वाइशों को http://www.catchmypost.com/kavita/2011-10-02-22-02-23.htmlशब्दों का जामा  पहनाया और उन्हें कविता में ढालकर ,''catchmypost ''पर प्रतियोगिता हेतु भेजा !उसका चयनित होना ही एक बड़ी उपलब्धि थी मेरे लिए ! लेकिन इसका श्रय मैं अपनी दीदी शील निगम जी को देती हूँ ! इस तरह मैं लेखनी के अथाह सागर में धीरे धीरे पांव जमाती हुई उतर पड़ी !ये एहसास हुआ कि.
बहुत गहरा सागर है यह जिसमें ज्ञान के सीप भरे पड़े हैं !मेरी लेखनी का रूख कहानियों ,कविताओं ,लेख,शाएरी और भजन की  तरफ भी है जैसे ....
                      '' कागज़ में जो लिखा नाम तेरा,वो लगे मुझे तस्वीर तेरी
                          वो पूजा मेरी हो जाए वो बन जाए तकदीर मेरी
                          यही प्रेम और भक्ति यही ,कुछ और मुझे नहीं आता
                          जब जहाँ भी तेरा ख्याल करू सर श्रधा से झुक जाता ...!''
                                                             कभी कभी लौंग ड्राइव पर जाते हुए ,बारिश की रिमझिम और चेहरे पर पड़ती बुँदे और हमसफ़र का साथ ,रास्ते में  कहीं गाडी रोक कर चाय की चुस्कियों का या गरम गरम भुट्टे का आनंद मेरे मन में एक तरंग पैदा कर देते हैं और इन्ही रूमानियत
भरे पलों में एक कविता का आगाज़ हो जाता है !
                                                                 कभी कभी ट्रेन  में बैठे बैठे अपने  मन पसंद लेखको की कृत्तियों को पड़ना एक सुखद एहसास देता है !
उतर जाती हूँ तब उनके भावों की गहराई के समुन्द्र में और कल्पनाशील होकर मंथन करने लगते हैं विचार उन पात्रों के साथ !
                                                                  कभी कभी छोटी छोटी बातें भी बड़ी ख़ुशी दे जाती हैं !कभी लिख कर खुद ही खुश हो जाया करती थी  पर आज इन छोटी खुशियों में परिवार का सहयोग और प्यार नज़र आता है जब पति मुझे ''मेरी लेखिका पत्नी ''कहकर पुकारते हैं और बच्चे ,''keep it mom '' कहकर उत्साह बढ़ाते हैं!यही मेरी  सबसे बड़ी उपलब्धि है !
                                                                 अंत में इतना ही कहूँगी कि २ बच्चो और पति के साथ अपने छोटे से परिवार के साथ खुशियों  के पल समेटते हुए कुछ पल निकालकर अपनी कलम से चंद शब्दों को कभी कविताओं ,कभी कहानिओं या लेखों में बाँध देती हूँ !भावनाओं को,अपने आसपास हो रही हर गतिविधि को अगर शब्दों में ढाल कर उचित तरीके से एक अच्छे सन्देश के साथ किसी भी आम इंसान तक पहुंचा सकू तो मुझे ख़ुशी होगी !इसी कोशिश के साथ अब तक अपनी कहानिया ,कवितायेँ और लेख आदि ई पत्रिका ..लेखनी,प्रवासी  दुनिया ,रचनाकार,म्हारा हरयाणा ,,मैथिलिप्रवाहिका पत्रिका जो छतीसगढ़ से  छपती है, में भेज चुकी हूँ और छपती रही हैं !अभी कुछ दिन पूर्व ही मेरे कहानी "आत्मसम्मान'' राष्ट्रीय समाचार पत्र ''rajasthan पत्रिका"में प्रकशित हुई जिसका लिंक है http://epaper.patrika.com/63713/Indore-Patrika/21-10-2012#page/37/2
बाकि सब रचनायें मेरे ब्लॉग http://www.catchmypost.com/rashmi/
पर आप पढ़ सकते हैं!
                                  मित्रो ,आप की प्रतिक्रिया ही मेरी अग्रिम रचना के लिए शुभकामना है !
                                                इसलिए इंतज़ार में ...
                                                                                     आपकी दोस्त ...रश्मि तरीका

बुधवार, 23 नवंबर 2011

मैं खुद कविता हूँ अंतहीन- नीलम प्रभा




नीलम प्रभा , नाम से क्या परिचय दूँ ..... इस नाम से मेरा भी संबंध है . जी , नीलम प्रभा मेरी बड़ी बहन हैं , ... पर इस रिश्ते से अलग वह एक अलाव है - जिसमें भावनाओं की तपिश है . कलम में उसकी सरस्वती भी हैं , दुर्गा भी हैं ... नहीं ज़रूरत उसे आकृति लिए पन्नों की , मुड़े तुड़े, बेतरतीबी से फटे हुए पन्नों को भी वह जीवंत बना देती है , जब उसमें से कृष्ण का बाल स्वरुप दिखता है इन शब्दों में -

" हैं कृष्ण किवाड़ों के पीछे
और छड़ी यशोदा के कर में
क्या करूँ हरि ये सोच रहे
फिर पड़ा हूँ माँ के चक्कर में ...."

सच तो ये है कि उसके पास ख्यालों के कई कमरे हैं ... तिल रखने की भी जगह नहीं , पर महीनों गुजर जाते हैं ... कमरे की सांकल खुलती ही नहीं ! उसे कहना पड़ता है - " खोलो तो द्वार , ख्याल सिड़ न जाएँ ..." बेतकल्लुफी से वह कहती है , " ख्याल नहीं सिड़ते... और फिर मैं तो अलाव हूँ , जहाँ सूरज ठहरता है खोयी गर्मी वापस पाने के लिए ..." ( ऐसा कुछ वह कहती तो नहीं , पर उसके तेवर यही कहते हैं !)
उसे आप कुछ भी लिखने को कहिये , वह यूँ लिखकर देती है - जैसे पहले से लिखा पड़ा था .
आप उसे खूबसूरत से खूबसूरत कॉपी दीजिये , पर फटे पन्नों पर ही वह आड़े तिरछे लिखती है ....... ऐसा करके शायद वह इन एहसासों को पुख्ता करती है कि " ज़िन्दगी कभी सीधे समतल रास्ते से मंजिल से नहीं मिलती ..."

यह परिचय जो आपके सामने है , वह भी बस पुरवा का एक झोंका है .... ' लो लिख दिया - खुश ?' मैं तो खुश हूँ ही , क्योंकि मैं उसे जानती हूँ , उसकी हर विधा से वाकिफ हूँ ....

अब उसकी कलम में आप देखिये - वह क्या है !


क्या कहकर परिचय दूँ अपना!
कि मैं पैदा हुई कहाँ और कहाँ पढ़ी ?
खड़ी थी कब ऊँचे शिखरों पर कब उतरी ?
कितनी किताबें हुईं प्रकाशित , मिले हैं कितने पुरस्कार ?
किन लम्हात ने मेरी कलम में शब्दों में पाया आकार ?

इस परिचय की मुझको है दरकार नहीं
ऐसा कुछ मेरे मैं को स्वीकार नहीं।

माँ से केवल नाम नहीं पाया मैंने
कलम भी मेरे हिस्से विरासत में आई
पिता से यह सुनकर मैं बड़ी हुई
’मेरी बेटी ने असाधारण प्रतिभा है पाई'

अपने सभी निज़ामों को खुसरो की तरह मैं प्रिय रही
इसीलिए गर्दिश में भी, जीवन की सुंदर कथा कही

जायदाद ’ग़र कलम की हाथ नहीं आती
तो मैं निश्चित बरसों पहले मर जाती

घर और घर के रिश्तों का हावी होना
तय था जो भी कुछ था सब भावी होना

बेशक! सब अपनों ने देखा भाला था
पर बिना शर्त जिन्होंने मुझे सँभाला था
वह मेरी कलम, कविता थी मेरी - ये क्या न बनीं मेरी खातिर!
आब बनीं, आहार बनीं, आधार बनीं, अधिकार बनीं,
हर मौके का इज़हार बनीं, मेरा पूरा परिवार बनीं
अब क्या कहना कि क्या है कलम और कविता क्या है मेरे लिए!

है कलम मेरी मेरा वजूद, मैं खुद कविता हूँ अंतहीन
ये दीन मेरा, मेरा यक़ीन
मेरे ख्वाबों की सरज़मीन
ये आफ़रीन, मैं आफ़रीन
हो इनसे अलग मैं कुछ भी नहीं, हो इनसे अलग मैं कुछ भी नहीं।

नीलम प्रभा
डी पी एस , patna

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

निष्पक्ष साथ - संजीव तिवारी



२००७ में मैंने ब्लोगिंग शुरू की - हिंदी में लिखने का सुझाव दिया संजीव तिवारी जी ने , और इस तरह एक परिचय हुआ उनसे . मेरी
रचना जो हिंदी में ब्लॉग जगत के सामने आई ' अद्भुत शिक्षा ', उसे लोगों के सम्मुख लाने का भी प्रयास संजीव जी ने ही किया .... यूँ कहें ,
इस जगत में मेरी पहचान के सूत्रधार या गुरु संजीव तिवारी जी हुए .
उनकी कलम से जब मैंने उनका परिचय माँगा तो लेखन में सधे संजीव जी ने इस तरह अपना परिचय भेजा जैसे पसीने से तरबतर हो कोई कह रहा
हो - अब ये बहुत हुआ ' ! तो चलिए रूबरू हो लें -

रश्मि जी, प्रणाम!

संपूर्णता के फेर में जीवन परिचय पूर्ण ही नहीं कर पाया, एक संक्षिप्‍त परिचय भेज रहा हूं, आजकल ब्‍लॉग पढ़ना नहीं हो पा रहा है.
विलंब के लिए क्षमा सहित.

संजीव तिवारी

माता - स्‍व.श्रीमति शैल तिवारी

पिता - स्‍व.श्री आर.एस.तिवारी

शिक्षा - एम.काम., एलएल.बी.
संप्रति - वर्तमान में हिमालया ग्रुप, भिलाई में विधिक सलाहकार.

पता - ग्राम- खम्‍हरिया(सिमगा के पास), पोस्‍ट- रांका, तहसील- बेरला, जिला-दुर्ग, छत्तीसगढ़.

लेखन प्रकाशन - विभिन्‍न पत्र पत्रिकाओं में 1993 से कविता, लेख, कहानी व कला-संस्‍कृति पर आधारित आलेख प्रकाशित.

संपादन : छत्‍तीसगढ़ी भाषा की आनलाईन पत्रिका गुरतुर गोठ डाट काम (http://gurturgoth.com) का विगत 2008 से प्रकाशन व संचालन.

ब्‍लाग लेखन - छत्‍तीसगढ पर केन्द्रित हिन्‍दी ब्‍लाग 'आरंभ' (www.aarambha.blogspot.com) का संचालन. हिन्‍दी इंटरनेटी व ब्‍लॉग तकनीक पर निरंतर लेखन. छत्‍तीसगढ़ के कला-साहित्‍य व संस्‍कृति को नेट प्‍लेटफार्म देकर सर्वसुलभ बनाने हेतु निरंतर प्रयासरत.

सम्‍मान/पुरस्‍कार - राष्‍ट्रभाषा अलंकरण, छत्‍तीसगढ़ राष्‍ट्र भाषा प्रचार समिति. वर्ष के सर्वश्रेष्‍ठ क्षेत्रीय लेखक, परिकल्‍पना सम्‍मान - 2010. रवि रतलामी जी के छत्‍तीसगढ़ी आपरेटिंग सिस्‍टम में सहयोग (इस आपरेटिंग सिस्‍टम को दक्षिण एशिया का प्रसिद्ध मंथन पुरस्‍कार प्राप्‍त हुआ)

वर्तमान पता - ए40, खण्‍डेलवाल कालोनी, दुर्ग, छत्‍तीसगढ़.

प्रोफाईल - गूगल # फेसबुक # ट्विटर

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संजीव तिवारी
देश भाषा-लोक भाषा www.gurturgoth.com
मेरी अभिव्‍यक्ति http://sanjeevatiwari.wordpress.com
जगमग छत्‍तीसगढ़ http://aarambha.blogspot.com
मेरा पेशा http://jrcounsel4u.blogspot.com
....... आप मुझे राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी में प्रतिउत्‍तर देंगे तो मुझे खुशी होगी.
उनकी आखिरी पंक्तियाँ हिंदी के प्रति उनकी निष्ठा को दर्शाती है . इसी हिंदी ने ही तो हम सबको जोड़ा है .

शनिवार, 17 सितंबर 2011

बौद्धिक सूर्य रथ की विनम्र सारथी - डॉ सुधा ओम ढींगरा



उपाधियाँ , सम्मान तो समय के साथ व्यक्ति को हासिल होते हैं , पर विनम्रता , शालीनता व्यक्ति को अजेय बनाती है ...बौद्धिक सूर्य रथ की विनम्र सारथी सुधा धींगरा जी का नाम तो सुना था , पर मीलों की दूरी को मिटाकर कोई बात नहीं हुई थी . मीलों की कौन कहे - यहाँ तो देश- विदेश की दूरी थी , पर अचानक एक दिन बिना टिकट , बिना किसी आकस्मिक खर्चे के , बिना किसी औपचारिकता के हम एक साहित्यिक मोड़ पर मिले ...
एक मेल मिला ,
नए कलेवर, नए रंग- रूप और नई साज- सज्जा के साथ
उत्तरी अमेरिका की लोकप्रिय त्रैमासिक पत्रिका 'हिन्दी चेतना' का
जुलाई -सितम्बर 2011अंक प्रकाशित हो गया है |

देखकर इस सज्जा को मैंने पूछा -
'मैं अपनी रचना भेज सकती हूँ इसके लिए ? '
और विनम्रता ने सुधा जी के लिबास में कहा -
'आदृत्या रश्मि जी,
यह पत्रिका आपकी है |'

और मैंने पत्रिका को अपना मान लिया .... सुधा जी को अपना मान लिया .... और अपनी कलम को सुधा जी के नाम की स्याही से भरा , जिन बातों से मैं अनभिज्ञ थी , उन बातों का आधार , उनकी कलम से उनका परिचय माँगा ... परिचय की माँग ने मोबाइल से हमारी आवाज़ की मुलाकात करवाई - फिर क्षणों में अपरिचय की रही सही दीवार भी गिर गई और अपनी कलम के माध्यम से सुधा जी सिर्फ मुझ तक नहीं आईं , बल्कि हम सब के पास आईं ..... तो मैं झीने परदे का आवरण हटती हूँ और मिलवाती हूँ हिंदी चेतना हिंदी प्रचारिणी सभा, कैनेडा की त्रैमासिक पत्रिका की संपादक: डॉ सुधा ओम ढींगरा जी से -

सुधा जी की कलम से
एक मुस्कराती आवाज़ कानों को तरंगित कर गई | आप सोच रहे होंगे कि फ़ोन पर मुस्कराती आवाज़ का कैसे पता चला | जी...फ़ोन पर आवाज़, आप के चेहरे के हाव -भाव, मूड सब बता देती है | बस संवेदनाओं के मंथन की आवश्कता है, अभ्यास सब सिखा देता है | आवाज़ रश्मि जी की थी और उन्होंने कहा कि अपना परिचय लिखूँ....सोच में पढ़ गई कि अभी तक तो मैं ही अपने बारे में कुछ नहीं जानती तो लिखूँ क्या ...पर रश्मि जी का मीठा, प्यारा अनुरोध है इसलिए स्वयं को ढूँढ़ना तो पड़ेगा | चलिए अतीत की तरफ लौटती हूँ जिसके पलों को यादों की अंगूठियों में हीरे, पन्ने, नीलम, मूंगे और पुखराज सा जड़ कर मैंने अपने हृदय की संदूकची में सुरक्षित रखा हुआ है | जब भी अतीत के गलियारे में झाँकने को मन करता है तो उन अंगूठियों को पहन लेती हूँ और सुखद अनुभूतियों से सराबोर हो जाती हूँ | लिखने के लिए उन अंगूठियों को पहन लिया है और ऐसा महसूस हो रहा है कि जिस धन को मैं वर्षों से अपना, सिर्फ अपना समझती थी, उसे आज आपके साथ ख़ुशी से साझा कर रही हूँ..
जालन्धर के एक साहित्यिक परिवार में जन्म हुआ | मम्मी -पापा और भाई तीनों डाक्टर थे | पोलिओ सर्वाइवल हूँ | अपंग होने से तो बच गई पर दाईं टाँग कमज़ोर रह गई इसलिए मेरा बचपन आम बच्चों की तरह नहीं बीता | तरह -तरह के तेलों की मसाज शरीर पर होती और काफ़ी व्ययाम करवाया जाता | बहुत दर्द होता और पलायन में परिकल्पना की दुनिया सजा लेती और कब कागज़ों पर कलम से शब्दों के चित्र उकेरने लगी याद नहीं | हाँ, काग़ज़, कलम और पुस्तकों से दोस्ती हो गई | यही दोस्त मुझे पीड़ादायक वर्षों से निकाल लाए | १२ वर्ष की माँ -पापा की मेहनत रंग लाई और मैं स्वस्थ्य किशोरी बनी | कत्थक, आकाशवाणी, रंगमंच और बाद में दूरदर्शन की कलाकार बनी | इस सब का श्रेय मैं अपने माँ -पा और अपने से दस साल बड़े भाई को देती हूँ जिन्होंने घर का वातावरण बहुत सकरात्मक रखा और मुझ में किसी तरह की कुण्ठा नहीं आने दी | माँ ने हमेशा एक बात सिखाई कि अपनी प्रतिभा को पहचान कर उसे अपनी ताकत और ढाल बनाओ | पापा ने हमेशा कुछ अलग हट कर करने के लिए प्रोत्साहित किया | कविता, कहानी, उपन्यास, इंटरव्यू, लेख एवं रिपोतार्ज सब लिखती रही और जीवन में जो कमी थी उसका एहसास नहीं हुआ | चाल से कभी कोई ढूँढ नहीं पाया कि मेरी टांगों में कोई अन्तर है | क़दमों को साधने का वर्षों से अभ्यास है और स्वयं कभी किसी को बताया नहीं | मुझे सहानुभूति नहीं चाहिए थी और 'बेचारी' शब्द नहीं सुनना था | पिछले कुछ वर्षों से पत्र -पत्रिकाओं के लिए इंटरव्यू देते समय तरह -तरह के प्रश्नों के उत्तर में बचपन का ज़िक्र स्वाभाविक रूप से आ जाता है अन्यथा उम्र भर किसी को पता न चलता | स्वाभिमानी हूँ, हर काम अपने दम पर करती हूँ | किस साहित्यिक परिवार से हूँ, उसका ज़िक्र भी कभी नहीं किया | कई पुस्तकें लिखने, 'हिन्दी चेतना' पत्रिका का संपादन करने और भारत की स्तरीय पत्र -पत्रिकाओं में छपने के उपरांत आज भी लगता है कि अभी तो कलम को माँज रही हूँ | साहित्य का समुद्र बहुत गहरा है, अभी तक घोघे- सिप्पियाँ ही हाथ लगे हैं, न जाने कितनी डुबकियाँ और लगानी पड़ेंगी हीरे जवाहरात ढूँढने के लिए और इस जन्म में ढूँढ भी पाऊँगी या नहीं, समय बताएगा |
लेखन के साथ -साथ एक सामाजिक एक्टिविस्ट भी हूँ | इसके बीज परिवार से मिले और मेरी मूल भूत प्रवृति ने इसे खाद -पानी दिया | माँ-बाप आज़ादी की लड़ाई में वर्षों जेलों में रहे | पापा वामपंथी विचारधारा के थे और माँ कट्टर कांग्रेसी | राजनीतिक विचारों में भिन्नता होते हुए भी समाज सेवा में वे दोनों एक थे | समाज की विद्रूपताओं और कुरीतियों के लिए जीवन की अंतिम साँस तक लड़ते रहे | विवाहोपरांत अमेरिका मेरी कर्म भूमि बना और भाषा, संस्कृति तथा महिलाओं के लिए अपने वैज्ञानिक पति डॉ. ओम ढींगरा के सहयोग से मैंने बहुत काम किया |
चिठ्ठा -लेखन को कम समय दे पाती हूँ | 'हिन्दी चेतना' के संपादन, नियमित स्तम्भ लेखन, कविता, कहानियाँ और लेख लिखने के उपरांत जो समय मिलता है, उसमें पढ़ती बहुत हूँ |
अब कुछ अंगूठियाँ अपनी संदूकची में वापिस रख रही हूँ | न जाने कब, कहाँ, किस मोड़ पर आपसे मुलाकात हो जाए तो ख़ाली हाथ न हूँ......

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