बुधवार, 3 अगस्त 2011

जिजीविषा की झलक - महेश्वरी कनेरी




ब्लॉग http://kaneriabhivainjana.blogspot.com/ पर जिजीविषा की झलक यूँ मिली - ,"पैतीस साल अध्यापन कार्य करने के बाद ,२००९ में जब मैं सेवानिवृत हुई। मुझे लगा ,मेरा जीवन कहीं रुक सा गया है ,मैं जैसे गति हीन होगई हूँ। मेरे पास करने को कुछ नया नहीं था । मुझे लगता था मैं अपनी पहचान खोने लगी हूँ । यही सब सोच- सोच मुझे डिप्रेशन सा होने लगा था।
तभी अचानक एक दिन गुगुल सर्च करते- करते एक हिन्दी ब्लॉग में जा पहुँची । मुझे मालूम था कि कुछ लोग ब्लॉग लिखा करते हैं, पर इस के बारे में कोई अधिक जानकारी नहीं थी । मुझे लगा… बस मुझे रास्ता मिल गया मुझे मेरी मंजिल मिल गई ।
फिर डरते-डरते मैंने दिनांक ४.अप्रेल २०११ को अपना एक ब्लॉग खोल ही दिया।सब् से पहले माँ सरस्वती का एक सुन्दर सा चित्र लगा कर मैंने प्रथम पोस्ट का श्रीगणेश किया ।उसी दिन फिर एक लघु कविता “ ऋतुराजबसन्त” की दूसरी पोस्ट भी पब्लिश कर दी। ब्लॉग का ये अनुभव मेरे लिए जितना रोमांचकारी था उतना ही अनजाना और अनभिज्ञ भी ।"
खुद को वही दिशा दे पाते हैं , जिनमें हार मानने की प्रवृति नहीं होती .... कोशिशें उनकी ही रंग लाती हैं . प्रतिभाओं की कमी नहीं , पर खुद पे भरोसा नहीं .... महेश्वरी जी में प्रतिभाएं भी मैंने पायीं और जीवन को फिर से एक पहचान देने की उत्कंठा भी देखी , प्रकृति से खुद को जोड़ते हुए उन्होंने मन को पंख दिए - ' रे मन, मुझे ले चल उस पार
जहाँ स्वच्छंद प्रकृति राग सुनाए '
अपनी कलम में उन्होंने अपनी पहचान को गहन मायने दिए इन शब्दों में - ' मैं नारी हूं। नारी ह्रदय की वेदना और पीडा़ मुझ में भी है। लेकिन नारी होने पर मुझे गर्व है। मैं नारी मन की वेदना को अपने कलम में ढाल कर उस एहसास को एक नई सोच व नई दिशा देना चह्ती हूं । यही मेरा सपना है। शुरुवात नई है, शौक पुराना है मंजिल दूर है. रास्ता अंजाना है.”

मुझे हमेशा ऐसे लोगों ने प्रभावित किया और मैंने बेझिझक उन्हें अपने ख़ास कैनवस पर चित्रित किया ...... महेश्वरी जी ने मेरे आगे आप तक पहुँचने के लिए कुछ इस तरह अपने को परिचय का परिधान दिया -

रश्मि प्रभा जी को बहुत-बहुत धन्यवाद उनके अनुकंपा से मै आप सब के सामने अपना ह्रदय खोल रही हूँ………………

मै महेश्वरी कनेरी …एक साधारण परिवार में जन्मी चार बहनों और एक भाई में सबसे बडी़ हूँ । घर में बडी़ होने के कारण भाई बहनों के प्रति मेरी हमेशा से जिम्मेदारियाँ रही है। मेरे पिता शिक्षा और अच्छे संस्कार पर बहुत ज़ोर दिया करते थे ।अपनी हैसियत के अनुसार हम सभी को उन्होंने अच्छी शिक्षा और अच्छे संस्कार दिए । मेरे पिता को मुझ से बहुत आशाएँ और उम्मीदें थीं मुझे हमेशा कहा करते थे “ बेटा ! तू मेरी बेटी नहीं बेटा है “

बचपन से ही मैं बहुत ही संकोची तथा अन्तर्मुखी रही। अपनी मन की बात किसी से कहते घबराती ।बस मन में उठे हर भाव को काग़ज में उतारना अच्छा लगता था। लिखने का सिलसिला वही से शुरु हुआ ।बाबुल के आँगन में भाई बहनों के बीच कब और कैसे बचपन बीत गया और मैं विवाह के बंधन में भी बँध गई पता ही नहीं चला ।

बचपन की एक घटना याद आरही है- जब मैं आठवी पास कर नौवी कक्षा में पहुँची तो मैं संगीत विषय लेना चाहती थी, क्यों कि मुझे संगीत से बहुत लगाव था । लेकिन पता नही क्यों अध्यापिका ने मुझे संगीत लेने ही नही दिया । औरों के मुकाबले मैं इतना बुरा भी नही गाती थी । ये बात मेरे मन को आहत कर गई ।मैंने उसी वक्त फैसला ले लिया कि मैं अपनी बेटी को संगीत जरुर सिखाऊँगी । विधि का विधान देखो आज मेरी बेटी रेडियो आर्टिस्ट होने के साथ- साथ हैदराबाद की जानी मानी गज़ल गायिकाओ मे से एक है ।कभी-कभी दुखी और अबोध मन से लिया, मासूम सा फैसला ईश्वर पूरा कर ही देते हैं।


सन१९७४ में अध्यापि्का के रुप में जब मेरी नियुक्ति केन्द्रीय विधालय में हुई मुझे लगा जैसे आज मेरे पंखो को परवाज़ मिल् गया । छोटे-छोटे बच्चों के बीच रह कर उनके मनोंभाव को समझते हुए उनके रुचि के अनुरुप कुछ गीत और काविताएं लिखने लगी “आओ मिलकर गायें गीत अनेक “ सन १९९४ में ये पुस्तक प्रकाशित हुई । सन१९९६ में गीत नाटिका का एक ओडियो कैसेट निकाला जिसमें छह गीतों भरी कहनियां हैं. सन १९९४ मे मुझे प्रोत्साहन पुरस्कार तथा २००० में राष्ट्र्पति पुरस्कार से सम्मानित कियागया । सन २००९ में सेवानिवृति के बाद ईश्वर की कृपा और आप लोगों की अनुकंपा से मैं फिर से लिखने का प्रयास कर रही हूं ।

जुनून और कुछ् कर गुजरने की चाहत मनुष्य को हमेशा आगे बढ़ाता है। सच्चे मन से किया जाने वाले हर कार्य में ईश्वर का निवास होता है,येसा मेरा विश्वास है । मै सफल हूँ या नहीं लेकिन सन्तुष्ट जरूर हूँ ।

घबराते- घबराते गिरते पड़्ते हम चले डरते-डरते

सोचते थे मंजिल मिलेगी भी या नही

तभी हौंसले ने अंगुली थामी ,विश्वास ने सहारा दिया

और हम चल पड़े, चलते रहे और चलते रहेंगे

क्योंकि आप सब का विश्वास हमारे साथ है

.................................

पंख होने से क्या होता है,हौसलो में उड़ान होती है

जीत उसकी होती है,जिसके सपनों में जान होती है


सच है... इस सच्चाई की जीती जागती तस्वीर है ये -


राष्ट्रपति पुरस्कार





मंगलवार, 2 अगस्त 2011

कभी झरना , कभी बादल - सोनल रस्तोगी



सोनल रस्तोगी कहते कुछ सरसराते शब्द मेरा हाथ पकड़ लेते हैं - 'जब भी खुद को शायरा,लेखिका और बुद्धिजीवी समझती हूँ नींद खुल जाती है' और मैं हंसकर कहती हूँ -' और तब तुम कलम उठा लेती हो, है न !'
कभी झरना , कभी बादल , कभी बारिश की बूंदें , कभी प्यार का अलाव .... क्या नहीं लगती सोनल . चेहरे पर एक शरारत जो कहती है - ' ज़िन्दगी तो यूँ हीं बड़ी गंभीर हुआ करती है , अभी ज़रा मुस्कुरा लेते है ... बड़ी फुर्सत से धूप निकली है ! '
इनका ब्लॉग है - http://sonal-rastogi.blogspot.com/ जहाँ इनकी सादगी, शरारत , और गंभीरता को आसानी से समझा जा सकता है . बिना मिले समझने का इससे बेहतर जरिया और क्या होगा , और मेरी कलम से अपनी कलम की आवाज़ मिलाकर तो इस जानकारी को और सुगम बना दिया है .... कहने को तो है यूँ बहुत सी बातें , पर अभी इतना ही सही ....

चिट सामने है सोनल जी की फिर देर क्यूँ -
अपने परिचय की चिट धीरे से आप तक बढ़ा रही हूँ बिलकुल वैसे ही जसे कोई चुपके से ख़त दरवाजे के नीचे से बढ़ा जाता है , फर्रुखाबाद में जन्मी परिवार की पहली बेटी लाड ढेर सारा ,ढेर सारे रिश्तों से घिरी,बेहद बातूनी ,हद दर्जे की शैतान माँ कहती है जब तक पढ़ना नहीं आया था तबतक ,फिर किताबों में ऐसी डूबी की आज तक नशा कायम है ,लिखने की शुरुवात स्कूल में लोकगीत की तुकबन्दिया भिडाने से शुरू हुई ,फिर गांधी जयंती ,रक्तदान ,नेत्रदान ,प्रदूषण हर सामाजिक विषय पर लिखा नाटक ,एकांकी सब लिखवाया मेरी अध्यापिकाओ ने और माँ सरस्वती के आशीष नें ही आम से ख़ास महसूस करवाया , इसी दौर में बालहंस में अपनी कहानी परिचय के साथ भेजी जो बाल प्रतिभा विशेषांक में छपी,फिर क्या था खाली लिफाफे और टिकेट मिल गए खूब लिखो और भेजो मनीआर्डर की रसीदे आज तक सहेजी है अपर किताबें ना सहेज पाई ,अनमोल है ना .....
हर बार प्रोत्साहन मिला,वाद विवाद प्रतियोगिता ,नृत्य हर विधा का आनंद लिया ,खेलों में फिसड्डी थी हूँ और रहूंगी ,समय के साथ डायरी भरती गई 12th तक हर विषय पर लिखा ..लोगों के प्रेम पत्रों के लिए शायरी भी लिखी,समय बदला परिस्थितिया बदली पढ़ाई के बोझ के तले कविता कहानियाँ सब खो गई बहित बड़ा शून्य आ गया लेखन में,आगे बढना था ढेर सारी पढ़ाई, होने वाले जीवन साथी से जब मिली तो उनका मन भी एक कविता ने चुराया
"आज दिल ने चाहा बहुत अपना भी हमसफ़र होता
जिससे कहते हालात दिल के जिसके काँधे पर अपना सर होता ..... (बाकी फिर कभी )"

भावनाएं उमड़ी और दिल से फिर फूट पड़ी कविता कहानिया, फर्रुखाबाद ..लखनऊ...मेरठ ...गुडगाँव . शहर बड़े होते गए और मैं इनके साथ बदलती गई, नया रिश्ता , नया शहर और ढेर सारा आत्मविश्वास और सहयोग. बस एक देसीपन आज तक वैसा ही है .. . ब्लॉग्गिंग से परिचय मेरे देवर डा. अंकुर ने करवाया http://gubaar-e-dil.blogspot.com/ तब से जो पंख लगे आज तक उड़ रही हूँ, एक दिन रविश जी ने मेरे ब्लॉग को अपने कॉलम में जगह क्या दी तब से मेरी दुनिया बहुत बड़ी हो गई और प्यारी भी , रचनाओ को पाठक मिले और मुझे पढने के लिए ढेर सारी सामग्री, सच में यहाँ मैं सिर्फ मैं हूँ बेहद सुकून मिलता है.
अभी तो घुटुनो के बल हूँ ,धीरे-धीरे चलूंगी पर दौड़ना नहीं है मुझे, ज़िन्दगी स्लो मोशन में ही भाती है सब देखना है मुझे .
क्या पता किसी दिन ब्लॉग से अखबार और अखबार से किताब की शक्ल ले लूँ ...